प्रयागराज। कोई भी संविधान उस देश के मूल निवासियों की भावना के अनुकूल होना चाहिए। कोई भी आयातित विचार हिन्दुओं के हित वाला नहीं हो सकता। कोई भी संविधान अपने देश के मूल चरित्र और वहाँ के निवासियों की संस्कृति, परम्परा और भाषा -भावादि के संरक्षण और संवर्धन के निमित्त होता है। हमारा देश भारत हिन्दुओं का देश होने के कारण हिन्दुस्थान कहा गया क्योंकि यहाँ के मूल निवासी हिन्दू ही हैं। जहाँ विश्व के अन्य धर्म किताबी धर्म कहे जाते हैं जो किसी एक किताब पर निर्भर होते हैं वहीं हिन्दू धर्म किसी किताब का नहीं, अपितु “सरस्वती” का समुपासक रहा है। हमारे ऋषियों ने अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा से वेदों की ऋचाओं को प्राप्त किया है।
उक्त बातें जगतगुरु शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्द सरस्वती जी महाराज ने परमधर्मांसद् में भारत का संविधान और हिन्दू धर्म विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कही।
उन्होंने कहा कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व तक भारत का कोई स्वतन्त्र संविधान नहीं था, यह विशाल देश अपने धर्मशास्त्र से ही सञ्चालित होता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान को अपनाया गया परन्तु वह भी पुरानी विधियों के बारे में इतना ही कह पाया कि जिस सन्दर्भ में हम नया कानून बना दें उसके अतिरिक्त सभी निर्णयों के लिए पूर्व की हिन्दु विधियाँ ही निर्णायक रहेंगी। ऐसे में यह संविधान आंशिक रूप से हिन्दु विरोधी, आंशिक रूप से हिन्दु समर्थक और आंशिक रूप से किसी भी पक्ष में व्याख्यासाध्य बन गया है।
उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद २५ से ३० में संशोधन करके देश के सभी निवासियों को समान अधिकार देने और इसकी अनुसूची ७ की सूची ३ की मद संख्या २८ के अनुसार मन्दिरों / हिन्दु धर्मस्थानों को हिन्दुओं के सञ्चालन में सौंपने जैसे कुछ संशोधन कर देने से यह संविधान सर्वथा समादरणीय हो सकेगा। प्रमुख रूप से साई जलकुमार मसन्द, ब्रह्मचारी श्रीधरानन्द, ब्रह्मचारी उदितानन्द आदि जन उपस्थित रहे।